बिहारीलाल जी के दोहे अर्थ समेत – Bihari ke Dohe with Meaning

बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 15 – Bihari ke Dohe 15

इस दोहे में महाकवि बिहारीलाल जी ने नायिका के अत्यंत सुंदर रूप की व्याख्या की है कि इसमें कवि ने नारी के शरीर की चमक की तुलना रत्न की चमक और दिये की रोश्नी से की है।

दोहा:

अंग-अंग नग जगमगत,दीपसिखा सी देह।
दिया बढ़ाए हू रहै, बड़ौ उज्यारौ गेह।।

अर्थ:

नायिका के शरीर का हर एक अंग किसी रत्न की तरह जगमगा रहा है, उसका तन दीपक की शिखा की तरह झिलमिलाता है अतः दिया बुझा देने पर भी घर मे उजाला बना रहता है।

क्या सीख मिलती है:

अगर घर में सर्वगुण संपन्न और सुंदर नारी होगी तो वह कठिन से कठिन समय में ही परिवार की डोर को बांधे रहेगी और अंधेरे में भी प्रकाश की तरह काम करेगी जैसे कि दिया करता है।
बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 16 – Bihari ke Dohe 16

आज की दुनिया में कई लोग ऐसे हैं जो सिर्फ दिखाने के लिए भगवान की आराधना करते हैं या सिर्फ बाहरी मन से ही विशाल यज्ञ का आयोजन कर प्रभु के नाम की माला जपते रहते हैं और सोचते हैं कि ईश्वर उनकी प्रार्थना सुन लेगा। ऐसे ढोंगी लोगों के लिए महाकवि बिहारीलाल जी ने अपने इस दोहे में बड़ी बात कही है-

दोहा:

जपमाला, छापैं, तिलक सरै न एकौ कामु।
मन काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु॥

अर्थ:

आडम्बर और ढ़ोंग किसी काम के नहीं होते हैं। मन तो काँच की तरह क्षण भंगुर होता है। जो व्यर्थ में ही नाचता रहता है। माला जपने से, माथे पर तिलक लगाने से या हजार बार राम राम लिखने से कुछ नहीं होता है। इन सबके बदले यदि सच्चे मन से प्रभु की आराधना की जाए तो वह ज्यादा सार्थक होता है।

क्या सीख मिलती है:

महाकवि बिहारीलाल जी के दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें सच्चे मन से ईश्वर की आराधना करनी चाहिए क्योंकि अगर हम सच्चे मन से जो भी अपने प्रभु की आराधना करता है , उसकी मुराद जरूर पूरी होती है।

बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 17 – Bihari ke Dohe 17

जयपुर के राजा जयसिंह जब विवाह के बाद पूरी तरह से अपने नवविवाहित पत्नी के प्रेम में डूबे गए थे और उनका ध्यान पूरी तरह से राज्य के कामकाज से हट गया था जिससे राजा के मंत्री भी काफी चिंता में रहने लगे थे जब महाकवि बिहारी लाल जी ने राजा जयसिंह को यह दोहा सुनाया था जो कि इस प्रकार है-

दोहा:

नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।।

अर्थ:

न ही इस काल मे फूल में पराग है ,न तो मीठी मधु ही है। अगर अभी भौरा फूल की कली में ही खोया रहेगा तो आगे न जाने क्या होगा। राजा जयसिंह अपने विवाह के बाद रास क्रीड़ा में अपना पूरा समय व्यतीत करने लगे थे। उनका अपने राज्य की तरफ से ध्यान हट गया था, तब बिहारी लाल जी ने यह दोहा सुनाया। इससे राजा फिर से अपने राज्य को ठीक प्रकार से देखने लगे।

क्या सीख मिलती है:

महाकवि बिहारी लाल जी के इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें सदैव अपने भविष्य को सोचकर चलना चाहिए और अपनी इंद्रियों को वश में रखना चाहिए क्योंकि अति किसी भी चीज की बेकार ही होती है। किसी से अत्याधिक प्रेम भी नुकसान का कारण बन सकता है।

बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 18- Bihari ke Dohe 18

समाज में ऐसे कई लोग हैं जिनके पास अचानक से पैसा आते ही वे घमंडी बन जाते हैं या फिर अभिमान में चूर होकर वे सभी को खुद से कम आंकने लगते हैं। ऐसे लोगों के लिए कवि बिहारी लाल जी इस दोहे में बड़ी बात कही है-

दोहा:

कनक कनक ते सौं गुनी मादकता अधिकाय।
इहिं खाएं बौराय नर, इहिं पाएं बौराय।।

अर्थ:

सोने में धतूरे से सौ गुनी मादकता अधिक है। धतूरे को तो खाने के बाद व्यक्ति पगला जाता है। सोने को तो पाते ही व्यक्ति पागल अर्थात अभिमानी हो जाता है।

क्या सीख मिलती है:

महाकवि बिहारीलाल जी के इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि अगर हमारे पास अचानक से पैसा आए तो हमें घमंड नहीं करना चाहिए बल्कि अपनी जमीनी स्तर पर जुड़कर हमेशा सोचना चाहिए।

बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 19 – Bihari ke Dohe 19

महाकवि बिहारीलाल जी ने इस दोहे में सच्चे मन से प्रेम करने वालों की व्यथा सुनाई है इसके साथ ही यह बताने की भी कोशिश की है कि कोई अगर अपने कृष्ण की भक्ति सच्चे मन से करता है तो निश्चत ही वह उनके प्यार में डूबकर और भी ज्यादा निर्मल और पवित्र होता जाता है-

दोहा:

या अनुरागी चित्त की,गति समुझे नहिं कोई।
ज्यौं-ज्यौं बूड़े स्याम रंग,त्यौं-त्यौ उज्जलु होइ।।<

अर्थ:

इस प्रेमी मन की गति को कोई नहीं समझ सकता। जैसे-जैसे यह कृष्ण के रंग में रंगता जाता है, वैसे-वैसे उज्ज्वल होता जाता है अर्थात कृष्ण के प्रेम में रमने के बाद ज्यादा निर्मल हो जाते हैं।

क्या सीख मिलती है:

जो लोग भगवान कृष्ण की सच्चे मन से आराधना करते हैं और उनकी भक्ति में लीन रहते हैं। उन लोगों का विश्वास प्रभु पर दिन पर दिन और भी ज्यादा बढ़ता जाता है और फिर वे कृष्ण के प्रेम रस में डूबकर और भी ज्यादा निर्मल हो जाते हैं।

बिहारीलाल जी का दोहा नंबर 20 – Bihari ke Dohe 20

इस दोहे के माध्यम से महाकवि बिहारी लाल जी ने श्री कृष्ण से प्रेम करने वाली एक ऐसी नायिका की व्यथा सुनाने की कोशिश की है जो कि अपने गिरधर गोपाल के दर्शन के लिए हमेशा ही लालायित रहती हैं और अपने प्रभु की आराधना में लीन रहती है

दोहा:

जसु अपजसु देखत नहीं देखत सांवल गात।
कहा करौं, लालच-भरे चपल नैन चलि जात।।

अर्थ:

नायिका अपनी विवशता प्रकट करती हुई कहती हैं कि मेरे नेत्र यश-अपयश की चिंता किये बिना मात्र साँवले-सलोने कृष्ण को ही निहारते रहते हैं। मैं विवश हो जाती हूँ कि क्या करूं क्योंकि कृष्ण के दर्शनों के लालच से भरे मेरे चंचल नयन बार -बार उनकी ओर चल देते हैं।

क्या सीख मिलती है:

महाकवि बिहारीलाल जी ने इस दोहे में बड़े सी श्री कृष्ण के प्रति प्रेम का ह्रदयस्पर्शी वर्णन किया है जो कि वाकई सराहनीय है।

11 thoughts on “बिहारीलाल जी के दोहे अर्थ समेत – Bihari ke Dohe with Meaning”

  1. Mahesh Sharma

    श्री जे जन रूखे बिषय रस चिकने राम सनेहँ।
    तुलसी ते प्रिय राम को कानन बसहिं कि गेहँ।61।

    जथा लाभ संतोष सुख रघुबर चरन सनेह।
    तुलसी जो मन खूँद सम कानन बसहुँ कि गेह।62।

    तुलसी जौं पै राम सों नाहिन सहज सनेह ।
    मूँड़ मुड़ायो बादिहीं भाँड़ भयो तजि गेह।63।

    तुलसी श्रीरघुबीर तजि करै भरोसो और ।
    सुख संपति की का चली नरकहुँ नाहीं ठौर।64।

    तुलसी परिहरि हरि हरहि पाँवर पूजहिं भूत।
    अंत फजीहत होहिंगे गनिका के से पूत।65।

    सेये सीता राम नहिं भजे न संकर गौरि।
    जनम गँवायो बादिहीं परत पराई पौरि।66।

    तुलसी हरि अपमान तें होइ अकाज समाज।
    राज करत रज मिलि गए सदल सकुल कुरूराज।67।

    तुलसी रामहिं परिहरें निपट हानि सुन ओझ।
    सुरसरि गत सेाई सलिल सुरा सरिस गंगोझ।68।

    राम दुरि माया बढ़ति घटति जानि मन माँह।
    भूरि होति रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छाँह।69।

    साहिब दीनानाथ सेां जब घटिहैं अनुराग।
    तुलसी तबहीं भालतें भभरि भागिहैं भाग।
    उक्त दोहों का अर्थ बताने की कृपा करें।

  2. बिहारी के दोहे मे ‘अनियारे’ शब्द का क्या अर्थ है।

  3. बढत बढत संपति-सलिलु, मन सरोज बढि जाइ I घटत घटत पुनि ना घटै, बरु समूल कुव्हिलाइ

    इसका अर्थ क्या हे पंडितजी… बताइये..

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