मराठा साम्राज्य का इतिहास | Maratha Empire

Maratha Empire– मराठा संघ एवं मराठा साम्राज्य एक भारतीय शक्ति थी जिन्होंने 18 वी शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना प्रभुत्व जमाया हुआ था। इस साम्राज्य की शुरुवात सामान्यतः 1674 में छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के साथ हुई और इसका अंत 1818 में पेशवा बाजीराव द्वितीय की हार के साथ हुआ। भारत में मुघल साम्राज्य को समाप्त करने के ज्यादातर श्रेय मराठा साम्राज्य को ही दिया जाता है।

मराठा साम्राज्य का इतिहास – Maratha Empire
Maratha Empire

इतिहास – Maratha Empire History:

मराठा साम्राज्य के मुख्य छत्रपति हुआ करते थे लेकिन छत्रपति शाहू महाराज और माधवराव प्रथम की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य की कमान पेशवा के हाथों में आ गयी, उस समय बहुत से स्थानिक शासको ने अपने राज्य को सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। निचे उनकी विस्तृत जानकारी दी गयी है :

छत्रपति शिवाजी महाराज – Shivaji Maharaj

शिवाजी महाराज, भोसले के मराठा अभिजात्य थे और साथ ही उन्हें मराठा साम्राज्य का संस्थापक भी कहा जाता है।शिवाजी महाराज ने बीजापुर सल्तनत से मराठा लोगो को रिहा करने का बीड़ा उठा रखा था और मुघलो की कैद से उन्होंने लाखो मराठाओ को आज़ादी दिलवाई। इसके बाद उन्होंने धीरे-धीरे मुग़ल साम्राज्य को ख़त्म करना शुरू किया और हिंदवी स्वराज्य की स्थापना करने लगे।

रायगढ़ को उन्होंने अपने साम्राज्य की राजधानी घोषित की और एक आज़ाद मराठा साम्राज्य की स्थापना की। इसके बाद अपने साम्राज्य को मुघलो से बचाने के लिए वे लगातार लढते रहे।

1674 में स्थापित नव मराठा साम्राज्य के छत्रपति के रूप में उनका राज्याभिषेक किया गया। शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित मराठा साम्राज्य ने भारतीय उपमहाद्वीप के तक़रीबन 4.1% भाग पर अपना प्रभुत्व जमा लिया था लेकिन इसके बाद भी शिवाजी महाराज तेजी से अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे।

उनकी मृत्यु के समय उन्होंने 300 किले साथ, तक़रीबन 40000 की घुड़सवार सेना और 50000 पैदल सैनिको की फ़ौज बना रखी थी और साथ पश्चिमी समुद्री तट तक एक विशाल नौसेना का प्रतिष्ठान भी कर रखा था। समय के साथ-साथ इस साम्राज्य का विस्तार भी होता गया और इसी के साथ इसके शासक भी बदलते गये, शिवाजी महाराज के बाद उनके पोतो ने मराठा साम्राज्य को संभाला और फिर उनके बाद 18 वी शताब्दी के शुरू में पेशवा मराठा साम्राज्य को सँभालने लगे।

संभाजी महाराज – Sambhaji Maharaj

शिवाजी महाराज के दो बेटे थे : संभाजी और राजाराम। संभाजी महाराज उनका बड़ा बेटा था, जो दरबारियों के बीच काफी प्रसिद्ध था।

1681 में संभाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य का ताज पहना और अपने पिता की नीतियों को अपनाकर वे उन्ही की राह में आगे चल पड़े। संभाजी महाराज ने शुरू में ही पुर्तगाल और मैसूर के चिक्का देवा राया को पराजित कर दिया था।

इसके बाद किसी भी राजपूत-मराठा गठबंधन को हटाने के लिए 1681 में औरंगजेब ने खुद दक्षिण की कमान अपने हात में ले ली। अपने महान दरबार और 5,000,00 की विशाल सेना के साथ उन्होंने मराठा साम्राज्य के विस्तार की शुरुवात की और बीजापुर और गोलकोंडाकी सल्तनत पर भी मराठा साम्राज्य का ध्वज लहराया। अपने 8 साल के शासनकाल में उन्होंने मराठाओ को औरंगजेब के खिलाफ एक भी युद्ध या गढ़ हारने नही दिया।

1689 के आस-पास संभाजी महाराज ने अपने सहकारियो को रणनीतिक बैठक के लिए संगमेश्वर में आमंत्रित किया, ताकि मुघल साम्राज्य को हमेशा के लिए हटा सके। लेकिन गनोजी शिर्के और औरंगजेब के कमांडर मुकर्रब खान ने संगमेश्वर में जब संभाजी महाराज बहुत कम लोगो के साथ होंगे तब आक्रमण करने की बारीकी से योजना बन रखी थी। इससे पहले औरंगजेब कभी भी संभाजी महाराज को पकड़ने में सफल नही हुआ था।

लेकिन इस बार अंततः उसे सफलता मिल ही गयी और 1 फरवरी 1689 को उन्होंने संगमेश्वर में आक्रमण कर मुघल सेना ने संभाजी महाराज को कैदी बना लिया। उनके और उनके सलाहकार कविकलाश को बहादुरगढ़ ले जाया गया, जहाँ औरंगजेब ने मुघलो के खिलाफ विद्रोह करने के लिए मार डाला। 11 मार्च 1689 को उन्होंने संभाजी महाराज को मार दिया था।

राजाराम और ताराबाई – Raja ram and Tarabai

संभाजी महाराज की मृत्यु के बाद, उनके सौतेले भाई राजाराम ने सिंहासन संभाला। लेकिन मुघलो की रायगढ़ पर घेरा बंदी शुरू हो चुकी थी और इसीलिए उन्हें विशालगढ जाना पड़ा और इसके बाद सुरक्षा के लिए उन्हें गिंगी भी जाना पड़ा। वही से मराठा शूरवीर मुग़ल सैन्य दलों पर छापा मारते थे और इस प्रकार बहुत से किलो को मराठाओ में दोबारा हासिल कर लिया था। उस समय के कुछ महान शूरवीरो में संताजी घोरपडे, धनाजी जाधव, परशुराम पन्त प्रतिनिधि, शंकरजी नारायण सचीव और मेलगीरी पंडित शामिल थे।

1697 में राजाराम ने औरंगजेब को युद्धविराम की संधि भी दी थी लेकिन औरंगजेब ने इंकार कर दिया। 1700 में सिंहगढ़ किले में राजाराम की मृत्यु हो गयी। उनकी विधवा ताराबाई अब साम्राज्य को अपने बेटे रामराज (शिवाजी द्वितीय) के नाम पर चला रही थी। उन्होंने ही कुछ समय तक मुघलो के खिलाफ मराठा साम्राज्य की कमान संभाली और 1705 से उन्होंने नर्मदा नदी भी पार कर दी और मालवा में प्रवेश कर लिया, ताकि मुघल साम्राज्य पर अपना प्रभुत्व जमा सके।

छत्रपति शाहू महाराज – Chatrapati Sahuji Maharaj

1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद, संभाजी महाराज के बेटे (शिवाजी के पोते) को मराठा साम्राज्य के नए शासक बहादुर शाह प्रथम को रिहा कर दिया लेकिन उन्हें इस परिस्थिति में ही रिहा किया गया था की वे मुघल कानून का पालन करेंगे। रिहा होते ही शाहू ने तुरंत मराठा सिंहासन की मांग की और अपनी चाची ताराबाई और उनके बेटे को चुनौती दी। इसके चलते एक और मुघल-मराठा युद्ध की शुरुवात हो गयी।

तभी 1707 में सतारा और कोल्हापुर राज्य की स्थापना की गयी क्योकि उत्तराधिकारी के चलते मराठा साम्राज्य में ही वाद-विवाद होने लगे थे। लेकिन अंत में शाहू को ही मराठा साम्राज्य का नया छत्रपति बनाया गया। लेकिन उनकी माता अभी भी मुघलो के ही कब्जे में थी लेकिन अंततः जब मराठा साम्राज्य पूरी तरह से सशक्त हो गया तब शाहू अपनी माँ को भी रिहा करने में सफल हुए।

इसके बाद शाहू ने बालाजी विश्वनाथ को नए पेशवा के रूप में नियुक्त किया। शाहू के शासनकाल में, रघुजी भोसले ने पूर्व (वर्तमान बंगाल) में मराठा साम्राज्य का विस्तार किया। सेनापति धाबडे ने पश्चिम में विस्तार किया। पेशवा बाजीराव और उनके तीन मुख्य पवार (धार), होलकर (इंदौर) और सिंधिया (ग्वालियर) ने उत्तर में विस्तार किया। ये सभी राज्य उस समय मराठा साम्राज्य का ही हिस्सा थे।

पेशवा युग:

इस युग में, पेशवा चित्पावन परिवार से संबंध रखते थे, जो मराठा सेनाओ का नियंत्रण करते थे और बाद में वही मराठा साम्राज्य के शासक बने। अपने शासनकाल में पेशवाओ ने भारतीय उपमहाद्वीप के ज्यादातर भागो पर अपना प्रभुत्व बनाए रखा था।

बालाजी विश्वनाथ – Balaji Vishwanath:

1713 में शाहू ने पेशवा बालाजी विश्वनाथ की नियुक्ती की थी। उसी समय से पेशवा का कार्यालय ही सुप्रीम बन गया और शाहूजी महाराज मुख्य व्यक्ति बने।

उनकी पहली सबसे बड़ी उपलब्धि 1714 में कन्होजो अंग्रे के साथ लानावल की संधि का समापन करना थी, जो की पश्चिमी समुद्र तट के सबसे शक्तिशाली नौसेना मुखिया में से एक थे। बाद में वे मराठा में ही शामिल हो गये।

1719 में मराठाओ की सेना ने दिल्ली पर हल्ला बोला और डेक्कन के मुघल गवर्नर सईद हुसैन हाली के मुघल साम्राज्य को परास्त किया। तभी उस समय पहली बार मुघल साम्राज्य को अपनी कमजोर ताकत का अहसास हुआ।

बाजीराव प्रथम – Baji Rao 1:

अप्रैल 1720 में बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद उनके बेटे बाजीराव प्रथम की नियुक्ती शाहू ने पेशवा के रूप में की। बाजीराव ने मराठा साम्राज्य के विस्तार को भारतीय उपमहाद्वीप में 3% से 30% तक पहुचाया। अप्रैल 1740 तक अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने कुल 41 युद्ध में लढाई की और उनमे से वे एक भी युद्ध नही हारे।

28 फरवरी 1728 को महाराष्ट्र के नाशिक शहर के पालखेड गाँव में जमीन को लेकर बाजीराव प्रथम और कमर-उद्दीन खान और हैदराबाद के असफजाह प्रथम के बीच युद्ध हुआ था। जिसमे मराठाओ ने निजाम को पराजित कर दिया। इस युद्ध में बाजीराव प्रथम ने सैन्य रणनीति का एक उत्तम नजराना पेश किया था।

1737 में बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मराठाओ ने दिल्ली के उपनगरो पर दिल्ली के युद्ध में बमवर्षा की और छापा मारा।मराठाओ के आक्रमण से मुघलो को बचाने के लिए निज़ाम से डेक्कन छोड़ दिया लेकिन फिर भी बुरी तरह से भोपाल के युद्ध में पराजित हुआ।

मुघलो ने इस युद्ध में मराठाओ के सामने पूरी तरह से घुटने टेक दिए थे और इसी के चलते मराठाओ ने मालवा से संधि करके उन्हें राज्य सौप दिया।

इसके बाद वसई का युद्ध मराठा और पुर्तगाली शासक के बीच हुआ, यह गाँव मुंबई के उत्तर में 50 किलोमीटर की दुरी पर आता है। इस युद्ध का नेतृत्व बाजीराव के भाई चिमाजी अप्पा ने किया था। इस युद्ध में मराठाओ की विजय बाजीराव के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित हुई।

बालाजी बाजी राव – Balaji Baji Rao:

बाजीराव का बेटा बालाजी बाजी राव (नानासाहेब) की नियुक्ती शाहूजी महाराज ने दुसरे दरबारियों के विरोध के बावजूद अगले पेशवा के रूप में की।

1740 में मराठा सेना अर्काट में आयी और उन्होंने अर्काट के नवाब दोस्त अली को दमलचेर्री में पराजित किया। इस युद्ध में उनके कई महत्वपूर्ण लोगो को अपनी जान गवानी पड़ी। शुरू में ही विशाल सफलता हासिल करने से मराठा साम्राज्य दक्षिण में भी तेजी से फ़ैल रहा था। दमलचेर्री से मराठा अर्काट की तरफ गये, जहाँ बिना कुछ किये ही आसानी से उन्होंने मराठा साम्राज्य का विस्तार किया। इसके बाद दिसम्बर 1740 को रघुजी ने त्रीचिनोपोली पर आक्रमण किया। अंत में कैदी बनाने के बाद चंदा साहेब और उनके बेटे को नागपुर भेजा गया।

कर्नाटक के सफल अभियान के बाद त्रिचिनोपोल्ली का युद्ध करके रघुजी भी कर्नाटक से वापिस आ गये थे। इसके बाद 1741 से 1748 तक उन्होंने बंगाल में छः अभियान चलाए। जिसके चलते रघुजी ओडिशा को भी अपने साम्राज्य में शामिल करने में सफल हुए और धीरे-धीरे मराठा साम्राज्य ने ओडिशा, बंगाल, और बिहार पर भी अपना प्रभुत्व जमा लिया।

इसके बाद 1751 में बंगाल के नवाब ने रघुजी के साथ शांति का सौदा कर लिया और वार्षिक रूप से उन्हें 1.2 मिलियन रुपये देने का दावा भी किया।

इसी समय में राजपुताना शासक भी मराठा साम्राज्य के प्रभुत्व में आ चुके थे।

पानीपत का तीसरा युद्ध – Panipat War 3:

1759 में सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में मराठाओ ने उत्तर भारत में अफ़ग़ान की वापसी के जवाब में अपनी विशाल सेना उत्तर की तरफ भेजी। भाऊ की सेना को दुसरे मराठो शासको को सेना जैसे होलकर, सिंधिया, गायकवाड और गोविंद पन्त बुंदेले की सेनाओ के वजह से और ज्यादा बल मिला।

इस तरह मराठाओ ने कुल 1,00,000 सैनिको की विशाल सेना बना रखी थी, ताकि वे दिल्ली की मुघल सल्तनत को दोबरा हासिल कर सके।

पहले भी कई बार हो चुके आक्रमणों की वजह से दिल्ली काफी प्रभावित हो चुकी थी। इस युद्ध में मराठाओ ने पेशवा के बेटे विश्वासराव को मुघल सिंहासन पर बिठाने की योजना बना रखी थी। इसके बाद 1760 में निज़ाम को पराजित करने के बाद मराठा सैनिको की ताकत तो और भी बढ़ गयी थी और उनका साम्राज्य भी 28,00,000 किलोमीटर एकर तक फ़ैल चूका था।

उस समय औध के अहमद शाह दुर्रानी ने मराठाओ को दिल्ली से निकालने में सहायता की। जिसके चलते 14 जनवरी 1761 को मराठा और मुस्लिम शासको की विशाल सेनाए एक-दुसरे पर टूट पड़ी और इस प्रकार पानीपत के तीसरे युद्ध की शुरुवात हुई। इस युद्ध में मराठाओ को हार का सामना करना पड़ा, जिसके चलते उनके साम्राज्य के विस्तार में रूकावट आ गयी थी।

इसके बाद जाट और राजपूत भी मराठाओ की सहायता नही करते थे। इस परिणाम के बाद बहुत से शासको ने मराठाओ की सहायता करने से इंकार कर दिया था।

इतिहासकारों ने भी मराठाओ की काफी आलोचना की थी। एक समय जहाँ मुस्लिम शासक अब जात के नाम पर एक हो रहे थे वही इस समय हिन्दू शासक एक-दूजे से अलग होने लगे थे। इसके बाद मराठाओ ने भी जाट और राजपुतो पर कडवे शब्दों का प्रहार किया और इसके चलते दोनों के बीच तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई।

इसके बाद भरतपुर के राजा सूरज मल ने भी मराठाओ का त्याग किया और कुछ राजपूत शासको ने तो मराठो सेनाओ से भी सपने सैनिको को निकाल दिया था। इन सभी परिस्थितियों के चलते भाऊ की सेना काफी कमजोर पद चुकी थी।

पेशवा माधवराव प्रथम – Peshwa Madhavrao 1:

पेशवा माधवराव प्रथम, मराठा साम्राज्य के चौथे पेशवा थे। उनके शासनकाल में मराठा साम्राज्य का पुनर्गठन किया जा रहा था। मराठा साम्राज्य में उन्होंने एकीकृत सेना की तरह काम किया और निजाम को पराजित करने के लिए दक्षिण की तरफ चल दिए। उन्होंने अपने मुख्य शूरवीर जैसे भोसले, सिंधिया और होलकर को उत्तर में मराठा साम्राज्य के विस्तार के लिए भेजा, जहाँ उन्होंने 1770 के शुरू में ही मराठा साम्राज्य का पुनर्गठन और विस्तार कर लिया था।

मराठा साम्राज्य विस्तार की चरम सीमा पर था,उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के बहुत से भागो पर अपना प्रभुत्व जमा लिया था। बहुत से क्षेत्रो को हासिल करने के अलावा मराठाओ ने बहुत सी सहायक नदियों को भी जोड़ रखा था, जिनसे उन्हें काफी आय भी हुआ करती थी।

मराठा साम्राज्य ने हैदर अली और टीपू सुल्तान की मैसूर सल्तनत, औध के नवाब, बंगाल के नवाब, हैदराबाद के निजाम और अर्काट के नवाब को पराजित किया। चौथ (कर) के रूप में मराठाओ को दिल्ली, औध, बंगाल, बिहार, ओडिशा, पंजाब, हैदराबाद, मैसूर, उत्तर प्रदेश और राजपुत से पैसा मिलता था।

1752 में औध के नवाब सफ़दरजंग ने मराठाओ से प्रार्थना की थी की वे अफगानी रोहिला को हराने में उनकी मदद करे। इसके बाद 1752 में मराठी सेना ने अफ़ग़ान रोहिला को पराजित करने के लिए पुणे छोड़ दिया और पुरे रोहिलखंड (वर्तमान उत्तर-पूर्वी उत्तराखंड) पर अपना प्रभुत्व जमा लिया।

1752 में मराठाओ ने बहुत से मुघल शासको के साथ दोस्ती कर एक संधि भी स्थापित की थी, जिसमे मुख्य रूप से वजीर और सफ़दरजंग शामिल थे।

लेकिन बदले में ये दोनों मराठाओ को पंजाबऔर सिंध से जमा की हुई चौथ (कर) देते थे और साथ ही उन्होंने मराठाओ को अजमेर और आगरा की सुबेदारी भी दे रखी थी।

इसके बाद 1758 में मराठाओ ने उत्तर-पश्चिम में अपने साम्राज्य का विस्तार करने की शुरुवात की और अपनी सीमा को अफ़ग़ानिस्तान से फैलाया। उन्होंने आसानी से अहमद शाह अब्दाली की अफ़ग़ान सेना को पराजित कर दिया। उस समय अफ़ग़ान की सेना में तक़रीबन 25,000 से 30,000 सैनिक थे, जिनमे अहमद शाह दुर्रानी का बेटा तिमुर शाह भी था, जो सेना का नेतृत्व कर रहा था।

मराठाओ ने इसके बाद बहुत से अफ़ग़ान साम्राज्यों को लूटा और वहाँ अपना प्रभुत्व जमाया, इनमे मुख्य रूप से लाहौर, मुल्तान, डेरा घाज़ी खान, पेशावर और पंजाब शामिल है।

संघीय युग में, महडजी सिंधिया ने मराठा साम्राज्य का पुनर्गठन भारत के उत्तरी भाग में किया। जिसे उन्होंने पानीपत के तीसरे युद्ध के बाद खो दिया था।

पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठाओ ने सतलज, कैथल, पटियाला, जींद, थानेसर, मालेरकोटला और फरीदकोट, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में अपने प्रभुत्व को खो दिया था। जो उस समय सिंधिया के हात में थे। और अंत में 1803-1805 में दुसरे एंग्लो-मराठा युद्ध में मराठा अपने प्रदेशो को ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ बचा नही पाए।

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2 thoughts on “मराठा साम्राज्य का इतिहास | Maratha Empire”

  1. याह आर्टिकल मै पेशवा दुसरा कि इन्फॉर्मशन नाही ऍड किया

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