भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जीवन परिचय

Surendranath Banerjee Ka Jeevan Parichay

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भारत के एक महान स्वतंत्रा सेनानी और राजनायिक थे, जिन्हें राष्ट्रगुरु के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने न सिर्फ भारत के सबसे प्राचीन राजनैतिक संगठन इंडियन नेशनल एसोसिएशन की स्थापना की थी, बल्कि दो बार उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ था। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की और देश के हितों के लिए कानून में बदलाव लाने की मांग की।

इसके अलावा उन्होंने बंगाल विभाजन का पुरजोर विरोध कर अंग्रेजों को बंगाल विभाजन के अपने फैसले को वापस लेने के लिए मजबूर कर किया था, इसलिए उन्हें किंग ऑफ बंगाल और बंगाल के निर्माता के रुप में भी जाना जाता है। वे एक उदारवादी राजनेता ही नहीं, बल्कि एक योग्य शिक्षाविद और प्रसिद्ध शिक्षक भी थे।

सुरेन्द्र नाथ जी स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे प्रमुख और लोकप्रिय नेताओं में से एक थे, जिन्होंने गुलाम भारत को आजादी दिलवाने के आंदोलन को सशक्त धार दी थी।  तो आइए जानते हैं ‘सर’ सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के जीवन के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें

भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जीवन परिचय – Surendranath Banerjee in Hindi

Surendranath Banerjee

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की जीवनी एक नजर में – Surendranath Banerjee Information

नाम (Name) सुरेन्द्रनाथ बनर्जी
जन्मतिथि (Birthday) 10 नवम्बर 1848, कलकत्ता
पिता (Father Name) डॉ. दुर्गा चरण बैनर्जी
शैक्षणिक योग्यता (Education) बैरिस्टर (Barrister-At-Law)
मृत्यु तिथि (Death) 6 अगस्त 192, बैरकपुर

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी  का जन्म, परिवार, शिक्षा और प्रारंभिक जीवन – Surendranath Banerjee Life History

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जी जन्म बंगाल प्रेसीडेंसी के कलकत्ता में एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता दुर्गा चरण बनर्जी एक डॉक्टर थे, जिनका उन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा था, वे अपने पिता के उदारवादी विचारों से काफी प्रेरित थे।

बनर्जी ने अपनी शुरुआती शिक्षा पैरेंटल एकैडमिक इंस्टिट्यूट और हिन्दू कॉलेज से हासिल की थी। इसके बाद कलकत्ता यूनिवर्सिटी से उन्होंने अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की थी और इसके बाद वे साल 1868 में रोमेश चंद्र दत्त और बहरी लाल गुप्ता के साथ मिलकर भारतीय सिविल परीक्षाएं देने के लिए इंग्लैंड चले गए थे।

पहले तो उन्हें लोक सेवा आयोग की परीक्षा में बैठने से मना कर दिया गया, हालांकि साल 1871 में दोबारा परीक्षा दी और I.C.S. परिक्षा में उत्तीर्ण हुए।

जातीय भेद-भाव का होना पड़ा शिकार:

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद इंडियन सिविल सर्विस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) के लिए एप्लाई किया। हालांकि उस समय इस इंडियन सिविल सर्विस में सिर्फ एक ही हिन्दू शख्स अपनी सेवाएं दे रहा था। वहीं बनर्जी को इस परीक्षा में आयु ग़लत बताए जाने का तर्क देकर शामिल नहीं किया गया।

यह सब देखकर बनर्जी ने जातीय भेदभाव के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की और अपनी एक अपील में तर्क प्रस्तुत करते हुए कहा कि हिन्दू रीति-रिवाजों एवं परंपराओं के मुताबिक उन्होंने अपनी उम्र गर्भधारण के समय से जोड़ी थी, न कि जन्म के समय से और बाद में वे यह केस जीत भी गए और फिर उन्हें उन्हें सिलहट (वर्तमान बांगला देश) में असिस्टेंट मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त किया गया।

लेकिन कुछ गंभीर न्यायिक अनियमितताओं के कारण साल 1874 में उन्हें इस पद से हटा दिया गया। इसके बाद उन्होंने वकील के रूप में अपना नाम दर्ज़ करवाने की कोशिश की, लेकिन इसके लिए उन्हें अनुमति देने से मना कर दिया था, क्योंकि उन्होंने इण्डियन सिविल सर्विस से निकाल दिया गया था, जिससे उनकी भावनाओं काफी आहत हुईं थीं, और यह सब उन्हें यह समझाने के लिए काफी था कि एक भारतीय होने के नाते उनके साथ इस तरह का दुर्व्यवहार किया जा रहा है।

सुरेन्द्र नाथ बनर्जी जी ने इंडयिन एसोसिएशन की स्थापना:

साल 1875 में सुरेन्द्र नाथ ही भारत वापस आ गए। इसके बाद बनर्जी ने मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट, दी फ्री चर्च इंस्टिट्यूट और रिपोन कॉलेज में इंग्लिश प्रोफेसर के तौर पर अपनी सेवाएं दीं। आपको बता दें कि उन्होंने इस कॉलेज की स्थापना 1882 में की थी।

फिर बनर्जी ने राष्ट्रीय और राजनैतिक विषयों और भारतीय इतिहास पर सामाजिक भाषण देना शुरू किया। 26 जुलाई 1876 को आनंदमोहन बोस के साथ इंडियन नेशनल एसोसिएशन की स्थापना की थी, जो कि एक प्राचीन भारतीय राजनितिक संस्था थी। वह इस संस्था के माध्यम से इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा दे रहे छात्रो की आयु सीमा को लेकर ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ रहे थे।

इसके साथ ही ब्रिटिश अधिकारियो द्वारा किये जा रहे जातीय भेदभाव के भी खिलाफ भी वे खड़े हुए थे, थे और उन्होंने भारत भ्रमण करते हुए जगह-जगह पर सार्वजानिक भाषण भी दिए थे। जिसके चलते उनकी लोकप्रियता पूरे देश में फैल गई थी और वे एक चहेते राजनेता के रुप में प्रसिद्ध हो गए थे।

देशवासियों को जागृत करने में दिया अमूल्य योगदान:

1879 में उन्होंने एक अखबार “दी बंगाली” की स्थापना की थी। 1883 में जब बनर्जी को अखबार में ब्रिटिश शासक के खिलाफ भड़काऊ जानकारी प्रकाशित करने के कारण कैद कर लिया गया था तब उनके बचाव में पूरा बंगाल ही नही, बल्कि भारत के मुख्य शहर जैसे अमृतसर, आगरा, लाहौर, फैजाबाद और पुणे के लोग भी निकल पड़े थे।

इस तरह लगातार इंडियन नेशनल एसोसिएशन का विकास होता गया और कलकत्ता में आयोजित इसकी वार्षिक कांफ्रेंस में तक़रीबन 100 से ज्यादा प्रतिनिधि उपस्थित थे। इसके बाद बॉम्बे में 1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करने के बाद बनर्जी ने अपनी संस्था को इंडियन नेशनल कांग्रेस में ही मिश्रित कर लिया।

1895 में पुणे में और 1902 में अहमदाबाद में उनकी नियुक्ति कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में की गयी थी।

सुरेन्द्र नाथ बनर्जी- द किंग ऑफ बंगाल – Surendranath Banerjee as King of Bengal

सुरेन्द्रनाथ भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के सबसे लोकप्रिय नेताओ में से एक थे, जिन्होंने साल 1905 में बंगाल विभाजन का बचाव किया। बनर्जी हमेशा सभी अभियानों, क्रांतिकारी मोर्चो और ब्रिटिश राज का विरोध करने में हमेशा आगे रहते थे और उन्हें केवल बंगाल की जनता ही नही बल्कि पूरे भारत के लोग सहायता करते थे।

इस प्रकार बनर्जी भारत के उभरते हुए नेता जैसे गोपाल कृष्णा गोखले और सरोजिनी नायडू के संरक्षक बने हुए थे। इसके साथ ही बनर्जी कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओ में से एक थे – जिन्होंने उग्रवादी के होने के बाद भी ब्रिटिशों के साथ समझौता कर लिया था और – भारतीय क्रांतिकारियों का बचाव किया था एवं भारतीय राजनितिक स्वतंत्रता को ढालने की कोशिश की थी – लेकिन फिर अंततः 1906 में बाल गंगाधर तिलक ने पार्टी किसी कारण से छोड़ दी थी।

स्वदेशी अभियान के समय भी बनर्जी मुख्य केंद्रबिंदु थे – जिन्होंने उस समय लोगो को सिर्फ और सिर्फ भारतीय उत्पाद का ही उपयोग करने के लिये प्रेरित किया और विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार करने को कहा। और उनके इन्ही साहस भरे कार्यो की वजह से उन्हें किंग ऑफ़ बंगाल (बंगाल का राजा) कहा जाता है।

भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माता सुरनेद्र नाथ बनर्जी:

सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने भारत में राष्ट्रवाद को विकसित मकरने में अपनी अहम भूमिका निभाई थी, इसके लिए पहले उन्होंने ‘इंडियन नेशनल एसोसिएशन’ की स्थापना की थी और बाद में इसका विलय ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’में कर दिया था। उन्होंने देशवासियों के हितों के लिए कानून बनाए जाने के लेकर अपनी आवाज बुलंद की थी और कई सालों तक संघर्ष किया था।

उन्होंने राष्ट्रिय आन्दोलन स्वाधीनता की मांग को लेकर भी काफी संघर्ष किया था। हालांकि बाद में स्वधीनता आन्दोलन का स्वरुप पूरी तरह बदल गया था, इस तरह उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन की नींव रखी और स्वतंत्रता संग्राम के सबसे लोकप्रिय और उदारवादी राजनेता के रुप में उभरे।

एक नजर में सुरेंद्रनाथ बॅनर्जी के कार्य – Surendranath Banerjee Contribution

  • 1871 में I.C.S. परिक्षा उत्तीर्ण होने के बाद सुरेंद्रनाथ की सिलहेट (अभी का बांगला देश) के सहायक मजिस्ट्रेट इस पद पर नियुक्त किया गया।
  • साल 1873 मे उनके खिलाफ कुछ लोगों ने झूठे आरोप भी लगाए थे। जिसकी पूछताछ के लिए एक आयोग की स्थापना की गई। यहां तक की बनर्जी की नौकरी से निकाल दिया गया, जिसके बाद उन्होंने वकील बनने का फैसला लिया हालांकि वकील के रुप में भी उन्हें काम करने से मना कर दिया गया।
  • साल 1875 में  बनर्जी के भारत वापस लौटते ही  ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने उन्हें मेट्रोपोलिटन कॉलेज मे अंग्रेजी के प्रोफेसर के तौर पर नियुक्त किया। इस दौरान कॉलेज मे पढ़ाते समय उन्होंने विद्यार्थियों के मन में देशभक्ति और ब्रिटिश के खिलाफ भावना जागृत करने का प्रयत्न किया गया।
  • साल 1876 में उन्होंने ‘इंडियन असोसिएशन’ में अपनी सक्रीय भूमिका निभाई। जब सिविल सर्विस की परीक्षा के लिये उम्र की शर्त 21 साल से 19 साल पर आने का सरकार ने निर्णय लिया था। तब  उनकी संस्था इंडियन एसोसिएशन ने बडे रूप इस निर्णय का विरोध किया।
  • साल 1876 मे वो कोलकता महापालिका पर चुनकर आए थे।
  • साल 1882 मे बनर्जी ने खुद के एक स्कूल  की स्थापना की। उनका स्कूल ‘रिपन कॉलेज’ नाम से काफी मशहूर हुआ। सुरेंद्रनाथ बनर्जी अपने ‘बंगाली’ पत्रिका के माध्यम से जनजागृति की।
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को उभरने मे उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। साल 1895 मे पुणा मे हुए और साल 1902 में अहमदाबाद मे हुए कांग्रेस अधिवेशन के वो अध्यक्ष थे। आगे इंडियन असोसिएशन राष्ट्रीय कंग्रेस मे मर्ज करने का बडा दिल उन्होंने दिखाया था।
  • साल 1905 मे सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने ब्रिटिश सरकार के बंगाल विभाजन का काफी विरोध किया। इसी वजह से उन्हें ‘अखिल भारतीय नेता’ ‘भारतीय युवाओं का नेता’ ऐसा माना जाता है।
  • साल 1918 में मुंबई कांग्रेस अधिवेशन मे मतभेद हुआ। सुरेंद्रनाथ और उनका समूह कांग्रेस मे से बाहर हो गए। उसी साल उन्होंने ‘इंडियन नेशनल लिबरल फेडरेशन’ की स्थापना की। और फिर में उन्हें स्थानिक स्वशासन के मंत्री बनाया गया।

सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का निधन – Surendranath Banerjee Death

भारतीय राष्ट्रीयता निर्माताओं में से एक सुरेन्द्र नाथ बनर्जी अपने पूरे जीवन भर राष्ट्र  हित के लिए समर्पित रहे। देश के लिए कानून बनाने एवं देश के प्रशासन में और अधिक हिस्सा दिए जाने की मांग को लेकर उन्होंने अपने जीवन में करीब 50 साल से भी ज्यादा संघर्ष किया था। वहीं साल 1923 में चुनाव हारने के बाद वे सार्वजनिक जीवन से अलग रहे और 6 अगस्त, साल 1925 में उन्होंने अपने जीवन की आखिरी सांस ली थी।

पुरस्कार – अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित किया था।

विशेषता –

  • I.C.S. परिक्षा उत्तीर्ण होनेवाले पहले भारतीय।
  • भारतीय राष्ट्रवाद के जनक।

सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के जीवन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण एवं रोचक तथ्य – About Surendranath Banerjee

बंगाली ब्राह्माण परिवार में जन्में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को साल 1869 में आयु गलत बताए जाने के आधार पर लोक सेवा आयोग की परीक्षा में नहीं बैठने दिया था, हालांकि 1871 में उन्हें फिर से परीक्षा में बैठने की अनुमति मिली थी। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को भी नस्लीय भेदभाव का शिकार होना पड़ा था, यहां तक की उन्हें नौकरी से भी निकाल दिया था, जिसके बाद उन्होंने इसका विरोध भी किया था, लेकिन कोई निस्कर्ष नहीं निकला था। राष्ट्र हित में अपना जीवन समर्पित करने वाले सुरेन्द्र नाथ बनर्जी स्वाधीनता आंदोलन के सबसे ज्यादा लोकप्रिय नेताओं में से एक थे, जिन्होंने साल 1905 में बंगाल विभाजन का बचाव किया था।

सुरेन्द्र बनर्जी ही वो शख्स थे, जो किे विदेशी वस्तुओं के खिलाफ भारत में निर्मित माल की वकालत करते थे। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को ब्रिटिश सरकार ने साल 1921 में ”सर” की उपाधि से नवाजा था। सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मुख्य, लोकप्रिय और उदारवादी नेता थे। वे एक देशभक्त, प्राध्यापक, पत्रकार, लेखक और एक प्रभावशाली वक्ता थे।

प्राचीन भारतीय इतिहास की रक्षा और देश की सुरक्षा के लिये बंगाल के नवयुवको में उन्होंने जो क्रांतिमय विचार भरे उसके कारण वे हमारे देश के महान व्यक्तियों में प्रमुख स्थान रखते है। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सक्रीय कार्यकर्ता थे। ब्रिटिश शासक के खिलाफ उनके द्वारा किये गए कार्यो को देश की जनता हमेशा याद रखेंगी।

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