मुग़ल शासक हुमायूँ का इतिहास | King Humayun History In Hindi

Humayun History In Hindi

हुंमायू एक प्रख्यात मुगल सम्राट था, जो बाबर का सबसे बड़ा पुत्र था। हुंमायूं एक इकलौता ऐसा मुगल शासक था, जिसने अपने पिता बाबर की आज्ञा का पालन करते हुए अपने मुगल सम्राज्य का बंटबारा अपने चारों भाईयों में किया था।

हुंमायूं ने अपने जीवन में कई उतार-चढ़ावों को देखा था। हुंमायूं को सबसे ज्यादा कष्ट उसके भाईयों से मिला था। वहीं अफगान शत्रुओं ने हुंमायूं की मुसीबतों को और भी ज्यादा बढ़ा दिया था, तो आइए जानते हैं, मुगल सम्राट हुंमायूं के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य – Humayun

मुग़ल शासक हुमायूँ का इतिहास – King Humayun History In Hindi

पूरा नाम (Name) नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूं (Humayun)
जन्म (Birthday) 6 मार्च, सन् 1508 ई., क़ाबुल
मृत्यु (Death) 27 जनवरी, सन् 1555 ई., दिल्ली
पिता (Father Name) बाबर
माता (Mother Name) माहम बेगम
पत्नियां (Wife Name) चाँद बीबी, हमीदा बानू बेगम, बिगेह बेगम, हाज़ी बेगम, शहज़ादी ख़ानम, बेगा बेगम, मिवेह-जान, माह-चूचक
संतान (Children) पुत्र-अकबर, मिर्ज़ा मुहम्मद हाकिम, बख्तुन्निसा बेगम, बख़्शी बानु बेगम, अकीकेह बेगम
मक़बरा हुमायूँ का मक़बरा

हुंमायूं का जन्म एवं प्रारंभिक जीवन एवं परिवार – Humayun Biography in Hindi

हूंमायूं, 6 मार्च साल 1508 में काबुल के एक प्रख्यात मुगल सम्राट बाबर के पुत्र के रुप में जन्में थे। उनकी मां का नाम माहम बेगम था, बचपन में सब उन्हें नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमांयूं कहकर पुकारते थे। वह बाबर के सबसे बड़े और लाड़ले पुत्र थे।

हुंमायूं के तीन भाई कामरान मिर्जा, अस्करी और हिन्दाल थे, जिसके लिए हुंमायूं ने अपने सम्राज्य का बंटबारा कर दिया था, लेकिन बाद में उन्हें इसकी वजह से काफी कुछ भुगतना पड़ा था। मुगल शासक हुंमायू महज 12 साल का था, तब उसे बदख्शां के सूबेदार के रुप में नियुक्त किया गया।

वहीं सूबेदार के रुप में हुंमायूं ने भारत में उन सभी अभियानों में हिस्सा लिया जिनका नेतृत्व उसके पिता बाबर ने किया था।

हूंमायूं के उत्तराधिकारी की घोषणा एवं राज्याभिषेक – Humayun Rajyabhishek

मुगल वंश के संस्थापक बाबर की मौत के चार दिन बाद 30 दिसंबर साल 1530 ईसवी में बाबर की इच्छानुसार उनके बड़े बेटे हुंमायूं को मुगल सिंहासन की गद्दी पर बिठाया गया और उनका राज्याभिषेक किया गया। आपको बता दें कि बाबर ने उनके चार पुत्रों में मुगल सम्राज्य को लेकर लड़ाई न हो और अपने अन्य पुत्रों की उत्तराधिकारी बनने की इच्छा जताने से पहले ही अपने जीवित रहते हुए हुंमायूं को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

इसके साथ ही बाबर ने चारों तरफ फैले अपने मुगल सम्राज्य को मजबूत बनाए रखने के लिए हुंमायूं को मुगल सम्राज्य को चारों भाईयों में बांटने के आदेश दिए। जिसके बाद आज्ञाकारी पुत्र हुंमायूं ने अपने मुगल सम्राज्य को चारों भाईयों में बांट दिया। उसने अपने भाई कामरान मिर्जा को पंजाब, कांधार, काबुल, हिन्दाल को अलवर और असकरी को सम्भल की सूबेदारी प्रदान की दिया, यही नहीं हुंमायूं ने अपने चचेरे भाई सुलेमान मिर्जा को बदखशा की जागीर सौंपी।

हालांकि, हुंमायूं द्धारा भाईयों को जागीर सौंपने का फैसला उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल साबित हुआ। इसकी वजह से उसे अपनी जिंदगी में कई बड़ी मुसीबतों का भी सामना करना पड़ा। वहीं उसका सौतेला भाई कामरान मिर्जा उसका बड़ा प्रतिद्धन्दी बना। हालांकि, हुंमायूं का अफगान शासको से कट्टर दुश्मनी थी, वहीं अफगान शासकों से लड़ाई में भी उसके भाईयों ने कभी सहयोग नहीं दिया जिससे बाद में हुंमायूं को असफलता हाथ लगी।

एक कुशल शासक के रुप में हुंमायूं एवं उसके विजय अभियान:

हुमायूं ने अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में साल 1531 से 1540 तक शासन किया था, फिर दोबारा साल 1555 से 1556 तक शासन किया था। वहीं मुगल सम्राज्य का विस्तार पूरी दुनिया में करने के मकसद को लेकर हुंमायूं ने अपनी कुशल सैन्य प्रतिभा के चलते कई राज्यों में विजय अभियान चलाया। वहीं इन अभियानों के तहत उसने कई राज्यों में जीत का परचम भी लहराया था।

साल 1531 में गुजरात के शासक बहादुर शाह की लगातार बढ़ रही शक्ति को रोकने के लिए मुगल सम्राट हुंमायूं ने कालिंजर पर हमला किया। वहीं इस दौरान अफगान सरदार महमूद लोदी के जौनपुर और बिहार की तरफ आगे बढ़ने की खबर मिलते ही हुंमायूं गुजरात के शासक से कुछ पैसे लेकर वापस जौनपुर की तरफ चला गया। जिसके बाद दोनों के बीच युद्द हुआ।

1532 में हुआ दौहारिया का युद्ध – Battle Of Dauhariya

साल 1532 में अफगान सरदार महमूद लोदी और हुंमायूं की विशाल सेना के बीच दौहारिया नामक स्थान के बीच युद्ध हुआ, इस युद्ध में हुंमायूं के पराक्रम के आगे महमूद लोदी नहीं टिक पाया और उसे हार का मुंह देखना पड़ा। वहीं इस युद्द को दौहारिया का युद्ध कहा गया।

मुगल सम्राट हुंमायूं और गुजरात के शासक बहादुर शाह के बीच संघर्ष – Humayun And Bahadur Shah

गुजरात के शासक बहादुर शाह ने 1531 ईसवी में मालवा तथा 1532 ई. में ‘रायसीन’ के महत्वपूर्ण क़िले पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने मेवाड़ को संधि करने के लिए मजबूर किया। वहीं इस दौरान गुजरात के शासन बहादुर शाह ने टर्की के एक प्रख्यात एवं कुशल तोपची रूमी ख़ाँ की मद्द से एक शानदार तोपखाने का निर्माण भी करवाया था।

जिसके बाद हुंमायूं ने बहादुरशाह की बढ़ती हुई शक्ति को दबाने के लिए साल 1535 ई. में बहादुरशाह पर ‘सारंगपुर’ में आक्रमण कर दिया। दोनों के बीच हुए इस संघर्ष में गुजरात के शासक बहादुर शाह को मुगल सम्राट हुंमायूं से हार का सामना करना पड़ा था।

इस तरह हुंमायूं ने माण्डू और चंपानेर के किलों पर भी अपना अधिकार जमा लिया और मालवा और गुजरात को उसने मुगल सम्राज्य में शामिल करने में सफलता हासिल की।

हुंमायूं का शेरशाह से मुकाबला – Humayun And Sher Shah Suri War

वहीं दूसरी तरफ शेर खां ने ‘सूरजगढ़ के राज’ में बंगाल को जीतकर काफ़ी ख्याति प्राप्त की, जिससे हुंमायूं की चिंता और अधिक बढ़ गई। इसके बाद हुंमायूं ने शेर खां को सबक सिखाने और उसकी शक्ति को दबाने के उद्देश्य से साल 1538 में चुमानगढ़ के किला पर घेरा डाला और अपने साहस और पराक्रम के बलबूते पर उस पर अपना अधिकार जमा लिया।

हालांकि, शेर ख़ाँ (शेरशाह) के बेटे कुतुब ख़ाँ ने हुमायूँ को करीब 6 महीने तक इस किले पर अधिकार जमाने के लिए उसे काफी परेशान किया था और उसे कब्जा नहीं करने दिया था, लेकिन बाद में हुंमायूं के कूटनीति के सामने कुतुब खां को घुटने टेकने को मजबूर होना पड़ा था।

इसके बाद 1538 ईसवी अपने विजय अभियान को आगे बढ़ाते हुए मुगल शासक हुंमायूं, बंगाल के गौड़ क्षेत्र में पहुंचा, जहां उसने चारों तरफ लाशों का मंजर देखा और अजीब से मनहूसियत महसूस की। इसके बाद हुंमायूं ने इस स्थान का फिर से निर्मण कर इसका नाम जन्नताबाद रख दिया।

वहीं बंगाल से लौटते समय हुमायूँ एवं शेरखाँ के बीच बक्सर के पास 29 जून, 1539 को चौसा नामक जगह पर युद्ध हुआ, जिसमें हुमायूँ परास्त हुआ।

चौसा का युद्ध – Battle of Chausa

साल 1539 में चौसा नामक जगह पर हुमायूं और शेख खां की सेना के बीच युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में मुगल सेना को भारी नुकसान हुआ और अफगान सेना ने जीत हासिल की। वहीं चौसा के युद्ध क्षेत्र से हुंमायूं ने किसी तरह अपनी जान बचाई।

इतिहासकारों के मुताबिक चौसा के युद्द में जिस भिश्ती का सहारा लेकर हुंमायूं ने अपनी जान बचाई थी, उसे हुंमायूं ने 24 घंटे के लिए दिल्ली का बादशाह का ताज पहनाया था, जबकि अफगान सरदार शेर खां की इस युद्द में महाजीत के बाद उसे ‘शेरशाह की उपाधि से नवाजा गया। इसके साथ ही शेर खां ने अपने नाम के सिक्के चलवाए।

17 मई, 1540ई. में कन्नौज (बिलग्राम) का युद्ध – Battle of Bilgram

17 मई 1540 ईसवी में हुंमायूं ने बिलग्राम और कन्नौज में लड़ाई लड़ी। वहीं इस लड़ाई में मुगल सम्राट हुंमायूं का उसके भाई अस्कारी और हिन्दाल ने साथ दिया, हालांकि हुंमायूं को इस युद्ध में असफलता हाथ लगी और यह एक निर्णायक युद्ध साबित हुआ। वहीं कन्नौज के इस युद्द के बाद हिन्दुस्तान में मुगल राज कमजोर पड़ गया और देश की राजसत्ता एक बार फिर से अफगानों के हाथ में आ गई।

इस युद्ध में पराजित होने के बाद हुंमायूं सिंध चला गया, और करीब 15 साल तक निर्वासित जीवन व्यतीत किया। वहीं अपने इस निर्वासन काल के दौरान ही 29 अगस्त,1541 ईसवी में हुंमायूं ने हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरू फारसवासी शिया मीर अली की पुत्री हमीदाबानों बेगम से निकाह कर लिया, जिनसे उन्हें महान बुद्धजीवी और योग्य पुत्र अकबर पैदा हुआ। अकबर ने बाद में मुगल सम्राट की नींव को मजबूत किया और मुगल साम्राज्य का जमकर विस्तार किया।

हुंमायूं ने फिर से हथियाई सत्ता:

करीब 14 साल काबुल में बिताने के बाद साल 1545 ईसवी में मुगल सम्राट हुमायूं ने काबुल और कंधार पर अपनी कुशल रणनीतियों द्धारा फिर से अपना अधिकार जमा लिया। वहीं हिंदुस्तान के तल्ख पर फिर से राज करने के लिए 1554 ईसवी में हुमायूं अपनी भरोसेमंद सेना के साथ पेशावर पहुंचा, और फिर अपने पूरे जोश के साथ उसने 1555 ईसवी में लाहौर पर दोबारा अधिकार कर जीत का फतवा लहराया।

मच्छिवारा और सरहिन्द का युद्ध – Battle of Sirhind

इसके बाद मुगल सम्राट हुंमायूं और अफगान सरदार नसीब खां एवं तांतर खां के बीच सतलुज नदी के पास ‘मच्छीवारा’ नामक जगह पर युद्ध हुआ। इस युद्द में भी हुंमायूं ने जीत हासिल की और इस तरह पूरे पंजाब पर मुगलों का अधिकार जमाने में सफल हुआ।

इसके बाद 15 मई 1555 ईसवी को ही मुगलों और अफगानों के बीच सरहिन्द नामक जगह पर भीषण संघर्ष हुआ। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व बैरम खाँ ने और अफगान सेना का नेतृत्व सिकंदर सूर ने किया। हालांकि इस संघर्ष में अफगान सेना को मुगल सेना से हार खानी पड़ी। और फिर 23 जुलाई, साल 1555 में मुगल सम्राट हुंमायूं, दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुए।

इस तरह मुगलों ने एक बार फिर अपने सम्राज्य स्थापित कर लिया और हिंदुस्तान में मुगलों का डंका बजा।

हुंमायूं की मृत्यु – Humayun Death

दिल्ली के सिंहासन पर बैठने के बाद हुंमायूं ज्यादा दिनों तक सत्ता का सुख नहीं उठा सकता है। जनवरी, साल 1556 में जब वह दिल्ली में दीनपनाह भवन में स्थित लाइब्रेरी की सीढ़ियों से उतर रहा था, तभी उसका पैर लड़खड़ा गया और उसकी मृत्यु हो गई।

वहीं हुंमायूं की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अकबर ने मुगल सिंहासन संभाला। उस समय अकबर की उम्र महज 13-14 साल थी, इसलिए बैरम खां को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया गया। इसके बाद अकबर ने मुगल सम्राज्य को मजबूती प्रदान की और लगभग पूरे भारत में मुगलों का सम्राज्य स्थापित किया।

वहीं उनके मौत के कुछ दिनों बाद उनकी बेगम हमीदा बानू ने “हुंमायूं के मकबरा” का निर्माण करवाया जो कि आज दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतों में से एक है, और यह मुगलकालीन वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है। इस तरह मुगल सम्राट हुंमायू के जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए लेकिन हुंमायूं अपनी पराजय से निराश नहीं हुए बल्कि आगे बढ़ते रहे और एक बार फिर से अपने खोए हुए सम्राज्य को हासिल करने में सफल रहे।

हुंमायू के जीवन से यही प्रेरणा मिलती है कि कठिनाइयों का डटकर सामना करने वालों को अपने जीवन में सफलता जरूर नसीब होती है। इसलिए अपने लक्ष्य की तरफ बिना रुके बढ़ते रहना चाहिए। हुमायूँ के बारे में इतिहासकार लेनपुल ने कहा है की,

“हुमायूँ गिरते पड़ते इस जीवन से मुक्त हो गया, ठीक उसी तरह, जिस तरह तमाम जिन्दगी गिरते पड़ते चलता रहा था”

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