केरल का प्रसिद्ध मंदिर गुरुवायुर मंदिर | Guruvayur Temple

गुरुवायुर मंदिर – Guruvayur Temple

केरल के सबसे प्रसिद्ध मंदिर में यहाँ के गुरुवायुर मंदिर का भी नाम लिया जाता है। यह मंदिर एक बहुत ही जागृत मंदिर है। इस मंदिर को जागृत मंदिर इसीलिए भी कहा जाता है क्यों की इसके पीछे भी एक बड़ी रहस्यमयी कहानी है।

Guruvayu temple

केरल का प्रसिद्ध मंदिर गुरुवायुर मंदिर – Guruvayur Temple

एक बार टीपू सुलतान इस मंदिर पर हमला करने वाला था। वो पूरी सेना के साथ में मंदिर पर हमला करने के लिया आया था। उसने मंदिर में आने के बाद मंदिर को पूरी तरह से लुटा और मंदिर को खतम करने के लिए आग भी लगा दी थी।

मगर वहापर अचानक ही बारिश शुरू हो गयी। बारिश बड़ी जोर से आ रही थी जिसकी वजह से मंदिर में लगी आग भी बुझ गयी और उसकी सेना मंदिर को खतम करना चाहती थी मगर वो मंदिर को कुछ भी नहीं कर सकी।

इतना सब कुछ होने के बाद भी मंदिर बिलकुल अच्छी हालत में था। आखिरी में टीपू सुलतान और उसकी सेना वहा से चली गयी।

केरला के इस सांस्कृतिक शहर को भगवान का घर कहा जाता है। केरला की यह समुद्र से नजदीक की जगह दुनिया के 10 सबसे सुन्दर जगह में शामिल किया जाता है जिसे स्वर्ग भी कहा जाता है।

दक्षिण भारत के केरला का यह गुरुवायुर शहर त्रिचुर जिले में स्थित है। इस शहर की सुन्दरता अवर्णनीय है।

गुरुवायुर में भगवान गुरुवायुरप्पन का काफी प्रसिद्ध मंदिर है। गुरुवायुरप्पन यहाँ की सबसे प्रमुख देवता मानी जाती है, जो अपने भक्तों की हर प्रार्थना को सुनते है। भगवान गुरुवायुर के गले में पवित्र तुलसी की माला, मोती का हार पहनाया जाता है। भगवान की इस मूर्ति की आभा दूर से ही दिखती है।

गुरुवायुर मंदिर का इतिहास – Guruvayur Temple History

ऐसा माना जाता है की इस मंदिर का पुनर्निर्माण सन 1638 में किया गया था। इस मंदिर को उस समय केरला के सबसे प्रसिद्ध तीर्थस्थल बनाने का काम पाच भक्तों ने किया था।

सन 1716 में डच ने इस मंदिर पर हमला कर दिया था और मंदिर को आग भी लगा दी थी। लेकिन फिर से सन 1747 मे इस मंदिर को बनवाया गया।

सन 1766 मे हैदर अली ने कालीकत और गुरुवायुर को अपने कब्जे में कर लिया था। लेकिन उसने वताक्केपत वारियर से 10000 फ़रम लिए थे जिसके बदले में उसने मंदिर पर का नियंत्रण छोड़ दिया था।

उसके बाद इस मंदिर की असुरक्षितता भी बढ़ गयी थी और लोगो ने मंदिर में आना बंद कर दिया था जिसकी वजह से मंदिर को मिलने वाला दान भी ख़तम हो गया था। लेकिन यह सब देखने के बाद हैदर अली ने सन 1780 मे मंदिर को ‘देवादय’ यानि दान देने की घोषणा की थी।

लेकिन यह दान देने के लिए मालाबार का गवर्नर श्रीनिवास राव ने बादशाह से सिफ़ारिश की थी जिसकी वजह से यह मंदिर बच पाया।

1789 में हैदर अली का लड़का टीपू सुल्तान बादशाह बन गया था क्यों की वो ज़मोरिन को हराना चाहता था और हिन्दू धर्मं के लोगो को मुसलमान बनाना चाहता था। इस बात से डरने से मंदिर की मुख्य देवता मुलाविग्रह की मूर्ति को अलग जगह पर छुपा दिया था और उत्सवाविग्रह देवता की मूर्ति को अम्बलापुजा को ले जाया गया था।

मंदिर के नजदीक आते ही टीपू ने मंदिर को आग लगा दी थी और मंदिर को लुटा भी था। मगर वहापर बिच में बारिश शुरू हो गयी और वहापर एक अजीबसी आवाज सुनाई दे रही थी जिसकी वजह से मंदिर को कुछ नहीं हुआ और मंदिर बच गया।

जब अंग्रेजो ने टीपू को हरा दिया तो उसके बाद मंदिर में फिर से देवताओ को स्थापित किया गया। उल्लानाद पनिकर ने खुद सन 1875 से 1900 के बिच मंदिर की देखभाल की थी और मंदिर का सारा खर्चा उन्होंने ही किया था।

सन 1841 में मद्रास सरकार ने भी मंदिर को ‘देवादय’ देने की फिर से शुरुवात की थी जिसे टीपू सुलतान ने बंद करवा दिया था। धीरे धीरे मंदिर का विकास होने लगा और मंदिर को फिर से पुनर्निर्मित किया गया।

20 वी शताब्दी के दौरान मंदिर के व्यवस्थापक श्री कोंती मेनन ने मंदिर को ओर बेहतर बनाने की कोशिश की। सन 1928 में एक बार फिर से ज़मोरिन ने मंदिर की देखभाल करने की जिम्मेदारी खुद पर ली थी।

सन 1931-32 के दौरान दलितों को मंदिर में प्रवेश मिलने के लिए केरल के गांधी केलाप्पन के नेतृत्व में सत्याग्रह किया गया था।

इसका परिणाम यह हुआ की सन 1936 में त्रावनकोर मंदिर में दलितों को जाने की इजाजत मिल गयी और इसके साथ ही ऐसा ही कुछ नियम 1946 में मालाबार में और 1947 में कोचीन में लागु किया गया।

तबसे हर हिन्दू को मंदिर में जाकर भगवान के दर्शन करने की अनुमति मिल गयी। लेकिन ‘नमस्कार साध्य’ यानि भगवान को भोज चढाने की इजाजत केवल ब्राह्मणों को ही थी। उस समय उत्तुपुरा में यही परंपरा थी। लेकिन आखिरी में यह परंपरा भी बंद करनी पड़ी।

1 जनवरी 1982 से देवस्वाम में करीब 500 से 1000 तीर्थयात्री यहापर भोजन करते है। भक्त भी अपनी इच्छा के अनुसार यहापर दान देते है।

गुरुवायुर मंदिर की वास्तुकला – Guruvayur Temple Architecture

इस मंदिर को केरल की परम्परा के अनुसार ही बनाया गया है। ऐसा कहा जाता है की इस मंदिर का निर्माण देवताओ के वास्तुकार ‘विश्वकर्मा’ ने करवाया था। इस मंदिर को कुछ अलग तरीके से निर्माण किया गया है की जिससे सूर्य देव भगवान विष्णु के दर्शन कर सके।

जिससे सूर्य की पहली किरण भगवान विष्णु के चरण को सबसे पहले स्पर्श कर सके। इस मंदिर का सबसे मुख्य दरवाजा पूर्व की दिशा में है। इस दरवाजे से भगवान विष्णु के दर्शन होते है।

इस मंदिर के ध्वजस्तंभ को ‘छुत्ताम्बलम’ कहते है। यह स्तंभ पूरी तरह सोने से बना हुआ है और 33.5 मीटर उचा है। इस मंदिर में एक और ‘दीपस्तंभ’ है जो रात के समय में काफी सुन्दर दीखता है।

मदिर में प्रवेश करने का जो द्वार है वो बिलकुल इस स्तंभ के पहले ही है। इस स्तंभ के आगे के रास्ते में 10 बहुत ही सुन्दर खम्बे नजर आते है। इसी जगह पर भगवान गुरुवायुर की प्रशंसा करनेवाले ‘नारायनियम’ के श्लोक भी लिखे है।

गुरुवायुर मंदिर के त्यौहार – Guruvayur Temple Festival

उल्सावं: यह त्यौहार कुम्भ के महीने में यानि फरवरी मार्च के दौरान मनाया जाता और यह उत्सव करीब 10 दिनों तक चलता है। इस त्यौहार की शुरुवात मंदिर के ध्वजस्तम्भ को 70 फीट उचाई पर खड़ा करने के साथ की जाती है।

त्यौहार के पहले दिन हाती की दौड़ लगाई जाती है। अगले छे दिन सुबह में, दोपहर और रात के समय हाती का जुलुस निकाला जाता है। सुबह के समय यज्ञ में आहुति दी जाती है। इस त्यौहार के दौरान हर दिन नृत्य, संगीत, सत्संग जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी मेल्पथुर सभामंड़प में किया जाता है।

त्यौहार के 8 वे दिन भगवान के सहयोगी को यज्ञ में आहुति दी जाती है और इसे ‘उत्सवबली’ कहा जाता है। इसके बाद में भक्तों को भोजन दिया जाता है।

9 वे दिन भगवान शिकार करने के लिए निकलते है और वो काम (इच्छा), क्रोध और बाकी के शत्रु को ख़तम करते है, इस त्यौहार को ‘पल्लिवेत्ता’ कहा जाता है।

इसके बाद में भगवान के थिदम्बू को रुद्रतिर्थ में ले जाते है और वहापर भगवान को स्नान किया जाता है और सभी भगवान के मंत्रो का जप करते है। हजारों भक्त अपने पापो से मुक्ति पाने के लिए स्नान करते है।

उसके बाद में भगवती मंदिर में उच्च पूजा की जाती है। (इस पूजा को ‘दोपहर की पूजा’ कहा जाता है और इस दिन यह पूजा रात के समय की जाती है।) पूरी 11 परिक्रमा करने के बाद में भगवान को मुख्य मंदिर में वापिस लाया जाता है। इसके बाद में ध्वज को निचे उतारा जाता है और इसके साथ ही उत्सव संपन्न होता है।

विशु: मलयाली लोगो का नया साल मदम महीने (अप्रैल के मध्य मे) में आता है और इसी दिन विशु त्यौहार मनाया जाता है। लोगो का ऐसा मानना है की इस त्यौहार के दिन सुबह में कोई अगर अच्छी चीज देख लेता है तो उसका पुरा साल अच्छा जाता है।

इस कहानी को मानते हुए इस त्यौहार के पहले दिन सभी लोग अपने घर में भगवान के सामने कानी(शुभ शकुन) जो कोना के फुल, कच्चे चावल, सोना, बिडे के पान और सुपारी, पिली ककड़ी और सिक्के रखे जाते है। दुसरे दिन सुबह उठने के बाद इन सब चीजो को देखने के बाद पुरा साल अच्छा बीतता है। गुरुवायुर मंदिर में कानी को देखना शुभ माना जाता है।

करोडो लोग रात भर जागते है और भगवान का दर्शन करते है, रात भर भक्तो की नज़ारे केवल भगवान पर ही टिकी रहती है। इसी वजह से ही मंदिर सुबह 3 बजे खुला किया जाता है।

अष्टमी रोहिणी: चिन्गाम के महीने में यानि जुलाई या फिर अगस्त के महीने में रोहिणी नक्षत्र के पर्व पर और श्रावण महीने के 8 वे दिन भगवान श्री कृष्ण की ‘जन्माष्टमी’ मनाई जाती है।

इस त्यौहार के दिन सभी श्री कृष्ण के मंदिर में भगवान की पूजा की जाती है और ऐसा भी कहा जाता है की खुद गुरुवायुर भी भगवान श्री कृष्ण को फूलो का हार पहनते है।

सभी भक्त भगवान को प्रसाद के रूप में चावल और गुड चढाते है और इस प्रसाद को ‘अप्पम’ कहते है क्यों की भगवान श्री कृष्ण को यह काफी पसंद है।

कुचेला दिवस: यह त्यौहार धनु महीने में बुधवार को मनाया जाता है। यह त्यौहार दिसंबर जनवरी महीने में मनाया जाता है। कुचेला एक बहुत ही गरीब ब्राह्मण था और वो भगवान श्री कृष्ण का बचपन का दोस्त था।

एक दिन वो भगवान श्री कृष्ण से मिलने चला गया और साथ में कुछ चावल भी ले गया था जो अपने मित्र श्री कृष्ण को देना चाहता था। वो जब वहापर पंहुचा तो भगवान श्री कृष्ण ने उसका बड़े अच्छे से स्वागत किया।

भगवान श्री कृष्ण के यहाँ जाने के बाद उसे ऐसा महसूस हुआ की वो खुद के घर में ही रह रहा है। मगर एक दिन भगवान श्री कृष्ण ने उसे पूछा की तुम साथ में मेरे लिए क्या लाये हो। इसी घटना की याद में मंदिर कुचेला दिवस मनाया जाता है।

वैश्का: इस त्यौहार को अप्रैल मई महीने के दौरान मनाया जाता है। इस पवित्र महीने में भक्त कड़ी तपस्या करते है और कुछ भक्त व्रत भी रखते है। इस महीने में व्रत रखना बहुत पवित्र माना जाता है।

गुरुवायुर मंदिर तक कैसे पहुचे? – How to Reach Guruvayur Temple

रास्ते से: सभी तरह के वाहनों से इस मंदिर तक पंहुचा जा सकता है। यहापर आने के लिए बस और रेल की सुविधा उपलब्ध है। कुन्नम्कुलम से जानेवाले रास्ते से गुरुवायुर का मंदिर केवल 8 किमी की दुरी पर है। यहापर के निजी बस स्टैंड भी है जो मंदिर की पूर्व दिशा में है।

रेलगाड़ी से: गुरुवायुर मंदिर की पूर्व दिशा में रेलवे स्टेशन है और इस रेलवे स्टेशन से मद्रास मंगलोर से सीधा थ्रिसुर जाने की सुविधा भी उपलब्ध है।

हवाई जहाज से: कोची अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा गुरुवायुर से केवल 80 किमी की दुरी पर है और कालिकत का हवाई अड्डा 100 किमी की दुरी पर है। इन हवाई अड्डो से सभी जगह पर जाने के सुविधा है।

केरल के त्रिचुर जिले में स्थित इस गुरुवायुर मंदिर से जुडी कई सारी बाते है। इस मंदिर में साल भर में कई सारे त्यौहार मनाये जाता है। उल्सावं, विशु, अष्टमी रोहिणी, कुचला दिवस जैसे त्यौहार बड़े आनंद से मनाये जाते है।

कुछ लोगो का ऐसा भी मानना है की इस मंदिर की रचना करने का काम भी खुद देवताओ के वास्तुकार ‘विश्वकर्मा’ ने किया था।

खुद विश्वकर्मा ने इस पवित्र गुरुवायुर मंदिर का निर्माण करवाया था। इस मंदिर को कुछ इस तरह से बनाया है की जिससे सूर्य की किरने सबसे पहले मंदिर के देवता तक पहुच सके।

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